Prabhu sampraday ka mahetba प्रभु सम्पदा का महत्व
Important of prabhu sampda प्रभु सम्पदा
इस जगत में प्रभु संपदा को छोड़ शेष संपदाएं जीव को दुख के भवसागर में डुबोने का काम करती हैं । यदि प्रभुकृपा की दुर्लभ संपदा पूर्व जन्मों के पुण्य फल से प्राप्त होती है तो उसी की आधारशिला पर फिर युगबोध के इतिहास का दिव्य भवन अवस्थित होता है । फिर प्रभु मानवता के दिशाबोध एवं जीवन मूल्यों के संरक्षण हेतु विपत्तियों का मंथन कर आदेश की स्थापना करते हैं । एक विपत्ति ( प्रभुकृपा से प्राप्त ) सांसारिक विपत्तियों से निजात दिलाकर प्रभु संपदा के उस लोक में पहंचा देती है जहां से जीव भौतिकता के समस्त बंधनों से मुक्त हो प्रभुदरबार का स्थायी अधिवासी बन जाता है , जबकि दूसरी विपत्ति ( विगत कर्मफल से प्राप्त ) कामनाओं से वशीभूत हो यातनाओं के भौतिकजाल में फंसाकर जीव को न केवल भरमाती है , अपितु बार - बार दुख के सागर में डूबने एवं उतरने और दुर्लभ जीवनलीला को समाप्त करने के लिए विवश करती रहती है । ज्ञानी गुरु से दीक्षित शिष्य अज्ञान के अंधकार से संघर्ष करते हुए भी अपने सुचिंतन से अपने अभीष्ट तक पहुंचने का मार्ग ढूंढ लेता है , लेकिन अज्ञानी गुरु द्वारा दीक्षित शिष्य तथाकथित मुक्ति मार्गों के बावजूद भी भ्रमवश अपने ही कुचिंतित विचारों में उलझ अपने दुर्लभ जीवन , समय एवं ऊर्जा का अपव्यय करता रहता है । भगवत्कृपा के बिना अथाह संपदा भी देखते - देखते से छिन सकती है । सर्वथा समर्थ होते हुए भी आप सिवाय पश्चातापबोध के कुछ करने की स्थिति में नहीं हो सकते । दूसरी ओर आपके पास कुछ न होने पर भी , प्रभु कृपा से आप वह अथाह संपदा पा सकते हो जिसका उपयोग जनहित एवं मानव कल्याण में करते हुए आप अघा सकते हैं , लेकिन उस संपदा की | प्रचुरता में लेशमात्र भी अंतर नहीं आ सकता । यदि | वास्तव में जीव अथवा मानव समर्थ होता तो जितना उसने यश , पद , प्रतिष्ठा एवं वैभव अर्जित किया है , उससे अधिक अर्जित करके दिखाता । अतः कुछ भी पाना एवं खोना प्रभु कृपा के बिना संभव नहीं ।
इस जगत में प्रभु संपदा को छोड़ शेष संपदाएं जीव को दुख के भवसागर में डुबोने का काम करती हैं । यदि प्रभुकृपा की दुर्लभ संपदा पूर्व जन्मों के पुण्य फल से प्राप्त होती है तो उसी की आधारशिला पर फिर युगबोध के इतिहास का दिव्य भवन अवस्थित होता है । फिर प्रभु मानवता के दिशाबोध एवं जीवन मूल्यों के संरक्षण हेतु विपत्तियों का मंथन कर आदेश की स्थापना करते हैं । एक विपत्ति ( प्रभुकृपा से प्राप्त ) सांसारिक विपत्तियों से निजात दिलाकर प्रभु संपदा के उस लोक में पहंचा देती है जहां से जीव भौतिकता के समस्त बंधनों से मुक्त हो प्रभुदरबार का स्थायी अधिवासी बन जाता है , जबकि दूसरी विपत्ति ( विगत कर्मफल से प्राप्त ) कामनाओं से वशीभूत हो यातनाओं के भौतिकजाल में फंसाकर जीव को न केवल भरमाती है , अपितु बार - बार दुख के सागर में डूबने एवं उतरने और दुर्लभ जीवनलीला को समाप्त करने के लिए विवश करती रहती है । ज्ञानी गुरु से दीक्षित शिष्य अज्ञान के अंधकार से संघर्ष करते हुए भी अपने सुचिंतन से अपने अभीष्ट तक पहुंचने का मार्ग ढूंढ लेता है , लेकिन अज्ञानी गुरु द्वारा दीक्षित शिष्य तथाकथित मुक्ति मार्गों के बावजूद भी भ्रमवश अपने ही कुचिंतित विचारों में उलझ अपने दुर्लभ जीवन , समय एवं ऊर्जा का अपव्यय करता रहता है । भगवत्कृपा के बिना अथाह संपदा भी देखते - देखते से छिन सकती है । सर्वथा समर्थ होते हुए भी आप सिवाय पश्चातापबोध के कुछ करने की स्थिति में नहीं हो सकते । दूसरी ओर आपके पास कुछ न होने पर भी , प्रभु कृपा से आप वह अथाह संपदा पा सकते हो जिसका उपयोग जनहित एवं मानव कल्याण में करते हुए आप अघा सकते हैं , लेकिन उस संपदा की | प्रचुरता में लेशमात्र भी अंतर नहीं आ सकता । यदि | वास्तव में जीव अथवा मानव समर्थ होता तो जितना उसने यश , पद , प्रतिष्ठा एवं वैभव अर्जित किया है , उससे अधिक अर्जित करके दिखाता । अतः कुछ भी पाना एवं खोना प्रभु कृपा के बिना संभव नहीं ।
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