Jivan ka dukh keshe dur kare जीवन का दुख कैसे दूर करे by विवेकानंद
Suffering of life.
एक बार स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से पूछा , ' अच्छे लोग हमेशा दुख क्यों पाते हैं ? ' इस सवाल पर परमहंस देव कुछ समय तक मुस्कुराते रहे , फिर कहा , ' हीरा रगड़े जाने पर ही चमकता है । सोने को शुद्ध होने के लिए आग में तपना पड़ता है । अच्छे लोग दुख नहीं पाते , बल्कि परीक्षाओं से गुजरते हैं । इस अनुभव से उनका जीवन बेहतर होता है , बेकार नहीं । ' परमहंस देव ने अपने इस छोटे से उत्तर में वस्तुतः जीवन के मर्म को उजागर कर दिया है । अपने जीवन में यदि हम सुख पाना चाहते हैं तो हमें दुख का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए । यह जान लीजिए कि सुख किसी तरह से निरपेक्ष अवस्था नहीं है । यह दुख के सापेक्ष ही महसूस किया जा सकता है । कोई व्यक्ति सदैव के लिए सुखी नहीं रह सकता । अनियंत्रित सुख से मनुष्य के संघर्ष की क्षमता कमजोर होती है , वह मानसिक तौर पर निर्बल हो जाता है । यह निर्बलता अवसाद का कारण बनती हैं और अवसाद आत्मघात का । शोहरत के चमक - दमक में रहने वाले साधन संपन्न लोगों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति इसी अनियंत्रित सुख की आवश्यक परिणति है । आपको इसमें विरोधाभास दिख सकता है , लेकिन ऐसा है नहीं । इसको ऐसे समझें । दुख , कष्ट हमारी दो तरह से मदद करते हैं । पहला तो यह कि हमें ये मानसिक तौर पर सबल बनाते हैं , कुछ वैसे ही जैसे हीरा रगड़े जाने पर अथवा सोने को आग में तपाने पर वे निखरते जाते हैं । दूसरा , हम अपने आसपास के संसाधनों का कद्र करना सीखते हैं । इससे संयम , मजबूती और अनुशासन जैसे सद्गुण विकसित होते हैं । ये गुण हमें कठिन परिस्थितियों के आने पर आत्मबल खोने नहीं देते , जिससे हम टिक पाते हैं , संघर्ष करते हैं और विजयी भी होते हैं । तो इस तरह हम यह देख पाते है कि यदि भिन्न दृष्टि से देखा जाए तो यह आभास होगा कि यह दुख भी एक खूबसूरत चीज है ! क्या इसलिए माता कुंती भगवान कृष्ण से अपने लिए दुख मांगती थीं । दुख की अवस्था हमें सर्वशक्तिमान प्रभु के और करीब ले जाती है और प्रभु का सामीप्य सुखों की जननी है । स्पष्ट है कि दुख समस्त सुखों के मूल में मौजूद है । उसका आधार स्तंभ है । इसीलिए ज्ञानी पुरुषों की ओर से कहा गया है कि दुख का भी सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए । सुख - दुख ....सामान्य समझ है कि सुख बांटने से बढ़ते हैं और दुख कम होते हैं । सुख और दुख दोनों ही मनुष्य के अपने कर्मों के फल होते हैं । सुख के लिए वह भरपूर प्रयास करता है और दुख जाने , अनजाने किए पापों के कारण उसके सिर का बोझ बनते जाते हैं । अपने सुख का आनंद वही जान पाता है जिसने सुख प्राप्त किया है । अपने कर्मों का सुख भोगना उसका अधिकार है । यदि वह सुख अन्य के साथ बांटता है तब भी अपने सुख पर उसका अधिकार वैसा ही अक्षुण्ण रहता है । इसी तरह दुख जिस सघनता से आया है वैसा ही रहेगा चाहे जितने लोगों से चर्चा कर ली जाए । सुख का बढ़ जाना और दुख का कम हो जाना मात्र एक भ्रम है । यह आवश्य होता है कि जब मनुष्य अपने सुख की अभिव्यक्ति करता है तो उसका अहम संतुष्ट होता है । उसे अन्य की अपेक्षा ऊपर उठे होने की अनुभूति होती है । दुख में प्राप्त होने वाली संवेदनाएं भी एक तरह से उसके अहम को संबल देने का कार्य करती हैं जिससे अपने पाप कर्मों , अवगुणों का पश्चाताप कम होता लगता है । दुख और सुख वास्तव में अंतर की अवस्था हैं । इन्हें अंतर तल पर ही भोगना श्रेयस्कर होता है । सुख की अनुभूति को यदि पूर्ण रूप से अंतर ग्राह्य किया जाए तो सद्कर्म करने की प्रेरणा जागृत होती है । दुख की सघनता को यदि पूर्णता में आत्मसात किया जाए तो पश्चाताप पूर्ण होता है और मन सचेत होता है । सुख और दुख दोनों ईश्वर ने दिए हैं । यह मनुष्य और ईश्वर के मध्य का आदान - प्रदान है । इसे सार्वजनिक करना ईश्वर के विधान में हस्तक्षेप करना है । आपका सुख न कोई अन्य भोग सकता है न कोई आपके हिस्से का दुख वहन कर सकता है । _ _ भावनाएं जिन्हें मन की शक्ति बननी चाहिए अब सार्वजनिक चर्चा का विषय बनती जा रही हैं । इससे बचना है तो मन की भावनाओं को आत्मसात करना आना चाहिए । भावनाओं को किससे और किस स्तर पर बांटना है यह विवेक होना चाहिए ।
एक बार स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से पूछा , ' अच्छे लोग हमेशा दुख क्यों पाते हैं ? ' इस सवाल पर परमहंस देव कुछ समय तक मुस्कुराते रहे , फिर कहा , ' हीरा रगड़े जाने पर ही चमकता है । सोने को शुद्ध होने के लिए आग में तपना पड़ता है । अच्छे लोग दुख नहीं पाते , बल्कि परीक्षाओं से गुजरते हैं । इस अनुभव से उनका जीवन बेहतर होता है , बेकार नहीं । ' परमहंस देव ने अपने इस छोटे से उत्तर में वस्तुतः जीवन के मर्म को उजागर कर दिया है । अपने जीवन में यदि हम सुख पाना चाहते हैं तो हमें दुख का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए । यह जान लीजिए कि सुख किसी तरह से निरपेक्ष अवस्था नहीं है । यह दुख के सापेक्ष ही महसूस किया जा सकता है । कोई व्यक्ति सदैव के लिए सुखी नहीं रह सकता । अनियंत्रित सुख से मनुष्य के संघर्ष की क्षमता कमजोर होती है , वह मानसिक तौर पर निर्बल हो जाता है । यह निर्बलता अवसाद का कारण बनती हैं और अवसाद आत्मघात का । शोहरत के चमक - दमक में रहने वाले साधन संपन्न लोगों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति इसी अनियंत्रित सुख की आवश्यक परिणति है । आपको इसमें विरोधाभास दिख सकता है , लेकिन ऐसा है नहीं । इसको ऐसे समझें । दुख , कष्ट हमारी दो तरह से मदद करते हैं । पहला तो यह कि हमें ये मानसिक तौर पर सबल बनाते हैं , कुछ वैसे ही जैसे हीरा रगड़े जाने पर अथवा सोने को आग में तपाने पर वे निखरते जाते हैं । दूसरा , हम अपने आसपास के संसाधनों का कद्र करना सीखते हैं । इससे संयम , मजबूती और अनुशासन जैसे सद्गुण विकसित होते हैं । ये गुण हमें कठिन परिस्थितियों के आने पर आत्मबल खोने नहीं देते , जिससे हम टिक पाते हैं , संघर्ष करते हैं और विजयी भी होते हैं । तो इस तरह हम यह देख पाते है कि यदि भिन्न दृष्टि से देखा जाए तो यह आभास होगा कि यह दुख भी एक खूबसूरत चीज है ! क्या इसलिए माता कुंती भगवान कृष्ण से अपने लिए दुख मांगती थीं । दुख की अवस्था हमें सर्वशक्तिमान प्रभु के और करीब ले जाती है और प्रभु का सामीप्य सुखों की जननी है । स्पष्ट है कि दुख समस्त सुखों के मूल में मौजूद है । उसका आधार स्तंभ है । इसीलिए ज्ञानी पुरुषों की ओर से कहा गया है कि दुख का भी सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए । सुख - दुख ....सामान्य समझ है कि सुख बांटने से बढ़ते हैं और दुख कम होते हैं । सुख और दुख दोनों ही मनुष्य के अपने कर्मों के फल होते हैं । सुख के लिए वह भरपूर प्रयास करता है और दुख जाने , अनजाने किए पापों के कारण उसके सिर का बोझ बनते जाते हैं । अपने सुख का आनंद वही जान पाता है जिसने सुख प्राप्त किया है । अपने कर्मों का सुख भोगना उसका अधिकार है । यदि वह सुख अन्य के साथ बांटता है तब भी अपने सुख पर उसका अधिकार वैसा ही अक्षुण्ण रहता है । इसी तरह दुख जिस सघनता से आया है वैसा ही रहेगा चाहे जितने लोगों से चर्चा कर ली जाए । सुख का बढ़ जाना और दुख का कम हो जाना मात्र एक भ्रम है । यह आवश्य होता है कि जब मनुष्य अपने सुख की अभिव्यक्ति करता है तो उसका अहम संतुष्ट होता है । उसे अन्य की अपेक्षा ऊपर उठे होने की अनुभूति होती है । दुख में प्राप्त होने वाली संवेदनाएं भी एक तरह से उसके अहम को संबल देने का कार्य करती हैं जिससे अपने पाप कर्मों , अवगुणों का पश्चाताप कम होता लगता है । दुख और सुख वास्तव में अंतर की अवस्था हैं । इन्हें अंतर तल पर ही भोगना श्रेयस्कर होता है । सुख की अनुभूति को यदि पूर्ण रूप से अंतर ग्राह्य किया जाए तो सद्कर्म करने की प्रेरणा जागृत होती है । दुख की सघनता को यदि पूर्णता में आत्मसात किया जाए तो पश्चाताप पूर्ण होता है और मन सचेत होता है । सुख और दुख दोनों ईश्वर ने दिए हैं । यह मनुष्य और ईश्वर के मध्य का आदान - प्रदान है । इसे सार्वजनिक करना ईश्वर के विधान में हस्तक्षेप करना है । आपका सुख न कोई अन्य भोग सकता है न कोई आपके हिस्से का दुख वहन कर सकता है । _ _ भावनाएं जिन्हें मन की शक्ति बननी चाहिए अब सार्वजनिक चर्चा का विषय बनती जा रही हैं । इससे बचना है तो मन की भावनाओं को आत्मसात करना आना चाहिए । भावनाओं को किससे और किस स्तर पर बांटना है यह विवेक होना चाहिए ।
Truly
ReplyDelete