Shiv or shive the शिव और शिवत्व

                            Shiv or shivetva .                                                                                                                                               
                                                                                                                                                                                         शिव और शिवत्व -----यत् सत्यं तत् शिवं , यत् शिवं तत् सुंदरं । जहां सत्य है , वहां शिव है और जहां शिव है , वहां सुंदरता है । शिव शब्द का अर्थ ही कल्याणकारी है । सभी | के लिए और सदा मंगलकारी एवं हितैषी होने के कारण वे सदाशिव हैं । परमात्मा शिव की समस्त संसार और प्राणियों के लिए हितकारिता ही उनकी सच्ची सुंदरता है । ' शि ' और ' व ' से बना शिव शब्द पापनाशक और मुक्तिदाता है । अर्थात जो सबके पाप हरते हैं और सबको मुक्ति देते हैं , वे परमात्मा शिव हैं । 

शिव के ज्ञान , गुण और शक्तियां ही तो उनके शिवत्व हैं । उन्हें धारण करने से मनुष्य में आंतरिक शक्ति एवं सद्गुणों का विकास होता है तथा उनके अवगुण एवं विकारों का अंत होता है । शिवत्व से | ही मानव जीवन और समाज में देवत्व की पुनः स्थापना एवं दानवी संस्कारों की पूर्ण समाप्ति होती है । शिव आध्यात्मिक ज्ञान के सूर्य हैं और शिवत्व उनके मंगलदायिनी गुण तथा शक्तियों की किरण , जो हर समय , हर स्थान और हर प्राणी के ऊपर पड़ती है । तभी तो गाते हैं , ' ज्ञान सूर्य प्रगटा , अज्ञान अंधेर विनाश । ' परंतु अगर हमारे घर के दरवाजे , खिड़कियां और रोशनदान सभी बंद पड़े हैं तो हम रोशनी न मिलने का दोष न तो सूर्य , न ही उसकी किरणों को दे सकते हैं । जैसे दैहिक प्राप्ति के लिए दैहिक संबंधियों को याद किया जाता है , वैसे ही । देहरहित निराकार परमात्मा शिव से सख - शांति रूपी शिवत्व की रोशनी पाने के लिए हमें अपने शरीर रूपी कुटिया यानी भृकुटि के मध्य विराजमान आत्मिक ज्ञान की खिड़की खोलनी होगी और निराकार शिव को याद करना होगा । 

मनुष्य का मन - बुद्धि से शिव की स्मृति में रहकर सांसारिक कर्म में प्रवृत्त होने को ही सर्वोच्च योग यानी राजयोग कहा गया है । और इसी से ही हर कर्म में आत्मशक्ति , आत्मविश्वास , आत्मसाहस , आत्मकुशलता एवं आत्मसंतुष्टि रूपी शिवत्व की प्राप्ति होती है । । ।।        

        शिव 

मनुष्य के शरीर में मनुष्य नहीं हैं , वे तो ईश्वर हैं । साधकमात्र ही साधना के ऊर्ध्व स्तर पर जाकर शिव अनुभव करता है कि हे ईश्वर ! तुम एक ही हो । तुम ही प्रज्ञा के रूप में सब कुछ देख रहे हो । तुम ही शक्ति के रूप में सब कुछ कर रहे हो । 

तुम एक हाथ से दुख देते हो और दूसरे हाथ से शोकाश्रुओं को पोंछ देते हो । तुम कठोर भाषा में शासन करते हो और पुनः अपने निकट बैठाकर प्यार करते हो । दोनों में ही तुम एक हो । दोनों में ही तुम संपूर्ण हो । तुम्हारी एक भूमिका दूसरी भूमिका की परिपूरक है । ऊर्जा एक अंध शक्ति है । एक छोटा बच्चा बिजली के स्पर्श से मर जाता है , क्योंकि विद्युत एक ऊर्जा है । उसमें चेतना नहीं है । उसमें ज्ञान नहीं है । वह अंध शक्ति है । उसमें विचार नहीं जागता कि यह शिशु है । यह जो जड़ शक्ति है , उसके साथ चैतन्य का समर्थन न रहने पर शक्ति क्षतिकारक हो सकती है । शिव सबका कल्याण चाहते हैं । इस कारण शक्ति को बेलगाम कार्य नहीं करने देना चाहते । शक्ति को नियंत्रण में रखते समय शिव की सरलता , शिव की साधुता किसी भी अवस्था में क्षुण्ण नहीं हो पाई है और कभी होगी भी नहीं । जीवन के छोटे - बड़े , पारिवारिक , सामाजिक किसी भी क्षेत्र में शिव ने अपनी सरलता नहीं छोड़ी और अपना कर्तव्य निभाया । हर क्षेत्र में ही शिव सहज - सरल हैं । 

शिव से मनुष्य के लिए सबसे अधिक ग्रहणीय , शिक्षणीय विषय है उनकी यह सरलता और साथ ही अपार कर्तव्यनिष्ठा । उनके जीवन के किसी क्षेत्र में किसी भी प्रकार का आडंबर नहीं है । उनकी विभूति अपार , अनंत है , परंतु वे स्वयं आत्मभोला हैं । शिव का यह विराटत्व उनका अन्यतम वैशिष्ट्य है । शिव के जो अनुगामी हैं उन्हें ' गण ' कहा जाता है । गण ही शिव के अलंकार थे । उन्हीं को लेकर शिव के सुख - दुख , हास्य - रुदन का संसार बसा था , क्योंकि शिव संसार के हर मनुष्य के हैं । शिव सबके हैं ।                                                                                                                                     भक्त और भगबान ।।                                                                                                             भक्त भगवान का अपने सच्चे भक्तों से बड़ा घनिष्ठ संबंध होता है । गीता में प्रभु कहते हैं , ' भक्तगण सदैव मेरे हृदय में वास करते हैं और मैं भक्तों के हृदय में । भारत की पुण्यभूमि पर तो ऐसे अनेकों भक्त संत हुए जिन्होंने अपनी निश्छल भक्ति के बल पर भगवान से सहज आत्मीय संबंध कायम किया ।

 आदि शंकराचार्य , विद्यापति , मीरा , रामकृष्ण परमहंस , वामचरण चट्टोपाध्याय ( बामा खेपा ) और न जाने कितने ही ऐसे संत हुए । शंकराचार्य को भगवान शिव का साक्षात अवतार माना जाता है , जिन्होंने मात्र सात वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया था । 12 वर्ष की उम्र में उन्होंने सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लिया और 16 वर्ष की अवस्था में सौ से भी अधिक ग्रंथों की रचना कर दी । महज 32 साल की आयु में अपना शरीर त्याग देने से पहले उन्होंने सनातन धर्म के प्रचार - प्रसार के उद्देश्य से देश के चारों कोनों में चार मठ स्थापित कर दिए थे । 

विद्यापति की भक्ति से प्रभावित होकर स्वयं भगवान उनके घर एक चाकर के रूप में रहे थे । मीरा के लिए तो प्रभु ने उनके विष को स्वयं पी लिया । रामकृष्ण परमहंस को भगवती पुत्रवत स्नेह देती थीं । उनके बुलाने पर दौड़ी चली आती थीं । बामा खेपा रामकृष्ण परमहंस के समकालीन थे । मां भगवती के तारा रूप के वह इतने करीब थे कि स्वयं को उनके सम्मुख पूर्णरूपेण बालक ही समझते थे । अगर कभी मां तारा उनकी प्रार्थना नहीं सुनतीं तो वह बच्चों की भांति रोना - पीटना आरंभ कर देते थे । कहा जाता है कि माता तारा ने उनका जूठा भी खाया था । वात्सल्य भाव से बामा खेपा को दूध पिलाती मां तारा की कहानी से कौन परिचित नहीं है । 

इनको यहां रखने का आशय इतना भर है कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हों , हमें प्रभु को कभी भूलना नहीं चाहिए , क्योंकि निराशा के गहनतम अंधेरों में भी वह हमारे इर्द - गिर्द ही होते हैं । हमें बस पुत्रभाव


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