The secret of man and creation मनुष्य और सृष्टि का रहस्य
Man and creation
संपूर्ण सृष्टि ईश्वर रचित है । मनुष्य भी उसका एक महत्वपूर्ण अंग है । जब एक सृजक है तो सृष्टि के सभी तत्वों में अंतर संबंध से भी इन्कार नहीं किया जा सकता । लगता है कि एक मनुष्य ही है जो इसे स्वीकार नहीं करना चाहता है । मानव सभ्यता का इतिहास भी यही इंगित करता है कि मनुष्य और सष्टि के अन्य घटकों के मध्य सामंजस्य का सदैव अभाव रहा है । उसने ईश्वर रचित वन काटे , पहाड़ काटे , नदियों के बहाव रोके , सागर पर बांध बनाए , धरती के गर्भ को रिक्त किया और उसकी स्वाभाविकता पर आघात किया । पशु - पक्षियों के आवास छीन लिए और | उनके जीवन को संकट में डाला है । अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य ने प्रकृति को निरंतर घाव दिए हैं और अन्य जीवों का अहित किया है । मनुष्य स्वार्थपरता के कितने निचले स्तर पर जा सकता है यह कहना कठिन है , किंतु प्रकृति ने सदैव | अपने गुण बचा कर रखे हैं । मनुष्य ने भले ही वन काट डाले , किंतु आज भी जब वह कहीं वृक्ष लगाता | है तो वह उगने से इन्कार नहीं करता । नदी में जल | आज भी बह रहा है । पक्षी आज भी चहकना नहीं | भूले हैं । मनुष्य जिस हाथ से सुंदर फूल तोड़ता है , | फूल उस हाथ को भी सुगंधित कर देता है । मनुष्य का यह स्वभाव क्यों नहीं है । काम , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार जैसे विकार उसे अपने हाथों नचाए जा रहे | हैं । मनुष्य सारी सृष्टि को अपने वश में करने का | स्वप्न देख रहा है , किंतु अपने विकारों पर उसका कोई वश नहीं है । वह अपने विकारों से सदैव पराजित | होता है । यही उसकी विफलता और विनाश का कारण बनते हैं । मनुष्य अपने जीवन का लंबा समय ज्ञान अर्जन में लगाता है । यदि वह सृष्टि से मित्रवत हो जाए तो बड़े - बड़े ग्रंथ उसके लिए अनावश्यक हो जाएंगे । वह वृक्षों , वनस्पतियों के निकट जा कर देने की भावना धारण करे । जब संग्रहीत कर लेने के स्थान पर वृक्षों की तरह बिना भेदभाव देते जाना आ | जाएगा तो उसका जीवन संवर जाएगा ।
संपूर्ण सृष्टि ईश्वर रचित है । मनुष्य भी उसका एक महत्वपूर्ण अंग है । जब एक सृजक है तो सृष्टि के सभी तत्वों में अंतर संबंध से भी इन्कार नहीं किया जा सकता । लगता है कि एक मनुष्य ही है जो इसे स्वीकार नहीं करना चाहता है । मानव सभ्यता का इतिहास भी यही इंगित करता है कि मनुष्य और सष्टि के अन्य घटकों के मध्य सामंजस्य का सदैव अभाव रहा है । उसने ईश्वर रचित वन काटे , पहाड़ काटे , नदियों के बहाव रोके , सागर पर बांध बनाए , धरती के गर्भ को रिक्त किया और उसकी स्वाभाविकता पर आघात किया । पशु - पक्षियों के आवास छीन लिए और | उनके जीवन को संकट में डाला है । अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य ने प्रकृति को निरंतर घाव दिए हैं और अन्य जीवों का अहित किया है । मनुष्य स्वार्थपरता के कितने निचले स्तर पर जा सकता है यह कहना कठिन है , किंतु प्रकृति ने सदैव | अपने गुण बचा कर रखे हैं । मनुष्य ने भले ही वन काट डाले , किंतु आज भी जब वह कहीं वृक्ष लगाता | है तो वह उगने से इन्कार नहीं करता । नदी में जल | आज भी बह रहा है । पक्षी आज भी चहकना नहीं | भूले हैं । मनुष्य जिस हाथ से सुंदर फूल तोड़ता है , | फूल उस हाथ को भी सुगंधित कर देता है । मनुष्य का यह स्वभाव क्यों नहीं है । काम , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार जैसे विकार उसे अपने हाथों नचाए जा रहे | हैं । मनुष्य सारी सृष्टि को अपने वश में करने का | स्वप्न देख रहा है , किंतु अपने विकारों पर उसका कोई वश नहीं है । वह अपने विकारों से सदैव पराजित | होता है । यही उसकी विफलता और विनाश का कारण बनते हैं । मनुष्य अपने जीवन का लंबा समय ज्ञान अर्जन में लगाता है । यदि वह सृष्टि से मित्रवत हो जाए तो बड़े - बड़े ग्रंथ उसके लिए अनावश्यक हो जाएंगे । वह वृक्षों , वनस्पतियों के निकट जा कर देने की भावना धारण करे । जब संग्रहीत कर लेने के स्थान पर वृक्षों की तरह बिना भेदभाव देते जाना आ | जाएगा तो उसका जीवन संवर जाएगा ।
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