Prathvi ke devta पृथ्वी के देवता
The God of the Earth
प्रत्यक्ष देवता ---हमारी परंपरा में देवता उसे कहा गया है जो जीवमात्र को निरंतर देता ही रहता है और बदले में कभी कुछ चाहता नहीं है । इसीलिए हमारे वेद पृथ्वी , अग्नि , जल , पर्वत , वायु और वृक्षों की प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि ये सभी देवता यथा रूप में मनुष्य के लिए सदा उपलब्ध रहें , क्योंकि बिना इनके मनुष्य जीवन की ही नहीं , सृष्टि में आए हुए किसी भी जीव के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है ।
पृथ्वी की स्तुति में वेद कहते हैं कि यह हमारी माता है और हम सभी इसके पुत्र हैं । यह हमें रहने का आधार देती है । इसकी कोख से ही हम अन्न , जल तथा वस्त्रादि सभी पदार्थ प्राप्त करते हैं । इसके विस्तार का ही यह प्रताप है कि हम सभी जीव स्वेच्छा और स्वच्छंदता से इसमें विचरण करते रहते हैं ।
अग्नि दो प्रकार की होती है । एक प्रत्यक्ष अग्नि और दूसरी अप्रत्यक्ष अग्नि । प्रत्यक्ष अग्नि सभी को प्रकाश देती है तथा अपनी ऊष्मा से शीतादि ऋतुओं में भी जीव मात्र की रक्षा करके सबका जीवन सुलभ बनाती है ।
अप्रत्यक्ष अग्नि जठराग्नि के रूप में सभी जीवों के उदर में रहती है और उनके द्वारा जो भी खाया - पिया जाता है , उसे पचाती है ।
जल हर स्थिति तथा समय में सभी के लिए अपरिहार्य है ।
पर्वत अपने भार से स्थान - स्थान पर स्थिर रहकर इस धरा का संतुलन बनाए रहते हैं और इस तरह से जीव मात्र के सुरक्षक होते हैं । वहीं अन्य किसी भी भौतिक तत्व के बिना तो हमारे लिए जीवित रह पाना कुछ समय के लिए संभव भी हो सकता है , किंतु वायु और जीवन परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही रेखांकित नहीं किया जा सकता ।
वृक्ष धरा के श्रृंगार हैं । ये धरती की विषैली गैसों का शोषण करके जीवनदायिनी गैसों का उत्सर्जन करते हैं ।
हमारे द्वारा हर समय क्रूरता से काटे जाने पर भी ये कभी हमें अपनी छाया से दूर नहीं करते । इसीलिए ये पूज्य तथा देवतुल्य हैं । हम निरंतर इनकी स्तुति करते रहें तो हमें उनकी रक्षा भी करनी होगी ।
प्रत्यक्ष देवता ---हमारी परंपरा में देवता उसे कहा गया है जो जीवमात्र को निरंतर देता ही रहता है और बदले में कभी कुछ चाहता नहीं है । इसीलिए हमारे वेद पृथ्वी , अग्नि , जल , पर्वत , वायु और वृक्षों की प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि ये सभी देवता यथा रूप में मनुष्य के लिए सदा उपलब्ध रहें , क्योंकि बिना इनके मनुष्य जीवन की ही नहीं , सृष्टि में आए हुए किसी भी जीव के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है ।
पृथ्वी की स्तुति में वेद कहते हैं कि यह हमारी माता है और हम सभी इसके पुत्र हैं । यह हमें रहने का आधार देती है । इसकी कोख से ही हम अन्न , जल तथा वस्त्रादि सभी पदार्थ प्राप्त करते हैं । इसके विस्तार का ही यह प्रताप है कि हम सभी जीव स्वेच्छा और स्वच्छंदता से इसमें विचरण करते रहते हैं ।
अग्नि दो प्रकार की होती है । एक प्रत्यक्ष अग्नि और दूसरी अप्रत्यक्ष अग्नि । प्रत्यक्ष अग्नि सभी को प्रकाश देती है तथा अपनी ऊष्मा से शीतादि ऋतुओं में भी जीव मात्र की रक्षा करके सबका जीवन सुलभ बनाती है ।
अप्रत्यक्ष अग्नि जठराग्नि के रूप में सभी जीवों के उदर में रहती है और उनके द्वारा जो भी खाया - पिया जाता है , उसे पचाती है ।
जल हर स्थिति तथा समय में सभी के लिए अपरिहार्य है ।
पर्वत अपने भार से स्थान - स्थान पर स्थिर रहकर इस धरा का संतुलन बनाए रहते हैं और इस तरह से जीव मात्र के सुरक्षक होते हैं । वहीं अन्य किसी भी भौतिक तत्व के बिना तो हमारे लिए जीवित रह पाना कुछ समय के लिए संभव भी हो सकता है , किंतु वायु और जीवन परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही रेखांकित नहीं किया जा सकता ।
वृक्ष धरा के श्रृंगार हैं । ये धरती की विषैली गैसों का शोषण करके जीवनदायिनी गैसों का उत्सर्जन करते हैं ।
हमारे द्वारा हर समय क्रूरता से काटे जाने पर भी ये कभी हमें अपनी छाया से दूर नहीं करते । इसीलिए ये पूज्य तथा देवतुल्य हैं । हम निरंतर इनकी स्तुति करते रहें तो हमें उनकी रक्षा भी करनी होगी ।
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