Sacche sadhu ki pahechan सच्चे साधु की पहचान
साधु
साधु ----जो चीजें नहीं देखनी चाहिए उन्हें मैं नहीं देखूगा । जो बातें नहीं सुननी चाहिए , जिन्हें सुनने से मानसिक अधोगति हो सकती है उससे मैं दूर रहूंगा । जो बातें नहीं सोचनी चाहिए , जिन्हें सोचने से अधोगति हो सकती है ऐसी बहुत सी बातें भी मैं नहीं सोचूंगा यही एक साधु का काम है ।
मान लीजिए , किसी ने आपको दो कटु बातें सुना दी । फिर गुस्से में आकर आप उसे मारें - पीटें तो यह बात ठीक नहीं है । ऐसे समय में आपको अपने मन को नियंत्रण में रखना चाहिए । आपको अपने वचन पर नियंत्रण रखना चाहिए । कोई बात बोलने के पहले सोचें कि क्या बोलना चाहिए , क्योंकि बोलने के बाद मुश्किल हो जाती है । एक बार बोली गई वाणी को वापस लेना संभव नहीं होता । हमें हर परिस्थिति में संयम रखना चाहिए । अपने मन को काबू में रखना चाहिए । यही है एक साधु का लक्षण ।
साधु बनने के लिए हिमालय जाने की कोई आवश्यकता नहीं है , घर में बैठकर भी साधु बना जा सकता है । साधु जैसा जीवन जिया जा सकता है । हर इंसान को साधु बनना चाहिए । पवित्र बनना चाहिए । हम शरीर को पवित्र रखने के लिए स्नान करते हैं , अन्यथा अस्वस्थ होते देर नहीं लगती । तीन दिन स्नान नहीं करने से आप अपने को अस्वस्थ महसूस करने लगते हैं । ठीक वैसे ही मन अपवित्र रहने से . भी आप अपने को अस्वस्थ महसूस करने लगेंगे ।
इसलिए शरीर और मन को साफ - सुथरा रखना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी है । इसी में हमारा हित छुपा है । जैसे शरीर को गंदा रखने से जल्दी रोग हो जाता है , उसी तरह मन को गंदा रखने से मनुष्य जल्द ही पशु जैसा बन जाता है । मनुष्य मात्र को ही साधु बनना है । इस जगत में मनुष्य के तन में आना उसी के लिए सार्थक है जिसका जीवन साधुतापूर्ण था , जो साधु थे । जो मनुष्य के तन में साधु का जीवन जी रहे हैं वे इस दुनिया में दोबारा नहीं आते हैं । उनका दोबारा जन्म नहीं होता है ।
ईश्वर से एकाकार कैसे करे
ईश्वर से एकाकार -----संसार का प्रत्येक प्राणी ईश्वरीय अंश है और हर एक अंश ईश्वर रूपी पूर्णता में विलीन होना चाहता है । इसे पूर्ण विश्राम या मोक्ष भी कहते हैं ।
हालांकि यह भी अटल सत्य है कि विलय केवल एक जैसे पदार्थों या प्रवृत्तियों का ही हो सकता है । इसका तात्पर्य है कि ईश्वरीय गुणों एंव मानसिक स्थिति से ही जीव ईश्वर में विलय की कल्पना कर सकता है । इसीलिए पहले इन गुणों को जानना आवश्यक है । ईश्वर वास्तव में निर्गुण निराकार , अजन्मा और निरंजन है । वह तो इस ब्रह्मांड के कण - कण में व्याप्त है । ईश्वरीय कणों से जुड़े ये गुण जीव की आत्मा में भी होते हैं , परंतु आत्मा जीव के कर्म बंधन से जुड़कर जीवात्मा कहलाती है और वह जीव के कर्म बंधन से मुक्त हुए बिना अपने वास्तविक स्वरूप जीवात्मा से आत्मा नहीं बन पाती । परिणामस्वरूप वह ईश्वर रूपी पूर्णता में विलीन नहीं हो पाती । इससे मोक्ष की राह अधूरी रह जाती है ।
मोक्ष वास्तव में मुक्ति की स्थिति है । इसकी राह में मनःस्थिति अवरोध उत्पन्न करती है । मन को सम स्थिति में लाए बिना मुक्ति का मार्ग नहीं खुलता । इसलिए मोक्ष के लिए सर्वप्रथम मनुष्य को मन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए । मन को इंद्रियों के द्वारा सांसारिक अनुभव होते हैं जिनके वशीभूत होकर वह भिन्न - भिन्न प्रकार के कर्म करता है । इसीलिए मनुष्य को प्रयास करना चाहिए कि वह भटकते हुए मन की लगाम कसे ।
इसके लिए योग उत्तम साधन माना गया है । भगवान ने गीता में योग के कई प्रकार भी बताए हैं । जैसे कर्म योग , भक्ति योग और ज्ञान योग ।
एक साधारण मनुष्य के लिए इन सभी में भक्ति योग सबसे उत्तम है , क्योंकि इसमें भटकाव की आशंका अत्यंत न्यून हैं । भक्ति योग में उसके आराध्य देव हर स्थिति में उसकी सहायता करते हैं । इसलिए मनुष्य को यदि ईश्वर से एकाकार होना है तो उसे ईश्वर की निर्लिप्त भाव से भक्ति करनी चाहिए जिससे वह ईश्वरीय गुण धारण कर उस परम शक्ति में विलीन होकर अपने लिए मोक्ष सुनिश्चित कर सके ।
Comments
Post a Comment