Vidya ka jivan me mahetva | विद्या का मनुष्य के जीवन मे महत्व
विद्या
विद्या ज्ञानदायी है , जबकि शिक्षा महज पुस्तक पोषक है । ज्ञान के अभाव में शिक्षा महज कागजी का ढेर है । श्रीराम को अहंकार का ज्ञान था और रावण को ज्ञान का अहंकार था । ज्ञान , संयम और नैतिक मूल्यों पर आधारित विद्या कल्याणकारी है । यही नहीं अहंकार जैसे अनीष्टकारी भाव का मर्दन कर जिज्ञासा उत्पन्न करना विद्या का काम है , न कि शिक्षा का ।
ज्ञान के अभाव में व्यक्ति पशु समान हो जाता है । लोकमंगल की कामना पूर्ति कर विद्या मनुष्य को कलुषित भाव से दूर कर उसके अंतस में आनंद का बीज रोपित करती है तथा दंभ , घृणा और ईर्ष्या का मर्दन कर विद्या सच्चिदानंद का द्वार खोलती है । इसलिए कहा भी गया है सा विद्या या विमुक्तये यानी विद्या विनय प्रदान करती है । विनय से पात्रता आती है , पात्रता से धन आता है , धन से धर्म होता है और धर्म से सुख प्राप्त होता है ।
विनम्रता पाषाण हृदय को भी मोम की तरह पिघला देती है । गुरु विद्या देता है , जबकि शिक्षक शिक्षा देता है । ज्ञान अंधकार को हरता है और शिक्षा जीवन को सुरमयी बनाती है । शिक्षा जीवन को यंत्रवत बनाती है और विद्या सत्यम् , शिवम् और सुंदरम् की अवधारणा को साकार कर चेतना प्रदान करती है । विद्या दृष्टि व्यापक कर मोक्ष प्राप्त करती है । विद्या अर्जन का पर्व है । मनुष्य के तमाम दों का कारण अविद्या ही है । यदि अविद्या दूर हो जाए तो दुख भी अनायास दूर " हो जाएंगे । सब वस्तुओं में श्रेष्ठ विद्या को माना गया है । विद्या जैसे अक्षय कोश को जितना खर्च किया जाए वह उतना ही अधिक बढ़ता है ।
विनम्रता से मनुष्य योग्यता प्राप्त करता है । अपनी योग्यता के दम पर मनुष्य धन प्राप्त करता है और धन से धार्मिक , सामाजिक और आध्यात्मिक कार्य संपन्न होते हैं । धार्मिक कार्य से असीम आनंद की प्राप्ति होती है ।
मनुष्य को सदैव अच्छे कार्य करने चाहिए । उसी से सुख की प्राप्ति होती है । विद्या का मूल उद्देश्य मनुष्य को ज्ञानवान बनाकर उसके जीवन की जटिलता को दूर करना है ।
विद्या ज्ञानदायी है , जबकि शिक्षा महज पुस्तक पोषक है । ज्ञान के अभाव में शिक्षा महज कागजी का ढेर है । श्रीराम को अहंकार का ज्ञान था और रावण को ज्ञान का अहंकार था । ज्ञान , संयम और नैतिक मूल्यों पर आधारित विद्या कल्याणकारी है । यही नहीं अहंकार जैसे अनीष्टकारी भाव का मर्दन कर जिज्ञासा उत्पन्न करना विद्या का काम है , न कि शिक्षा का ।
ज्ञान के अभाव में व्यक्ति पशु समान हो जाता है । लोकमंगल की कामना पूर्ति कर विद्या मनुष्य को कलुषित भाव से दूर कर उसके अंतस में आनंद का बीज रोपित करती है तथा दंभ , घृणा और ईर्ष्या का मर्दन कर विद्या सच्चिदानंद का द्वार खोलती है । इसलिए कहा भी गया है सा विद्या या विमुक्तये यानी विद्या विनय प्रदान करती है । विनय से पात्रता आती है , पात्रता से धन आता है , धन से धर्म होता है और धर्म से सुख प्राप्त होता है ।
विनम्रता पाषाण हृदय को भी मोम की तरह पिघला देती है । गुरु विद्या देता है , जबकि शिक्षक शिक्षा देता है । ज्ञान अंधकार को हरता है और शिक्षा जीवन को सुरमयी बनाती है । शिक्षा जीवन को यंत्रवत बनाती है और विद्या सत्यम् , शिवम् और सुंदरम् की अवधारणा को साकार कर चेतना प्रदान करती है । विद्या दृष्टि व्यापक कर मोक्ष प्राप्त करती है । विद्या अर्जन का पर्व है । मनुष्य के तमाम दों का कारण अविद्या ही है । यदि अविद्या दूर हो जाए तो दुख भी अनायास दूर " हो जाएंगे । सब वस्तुओं में श्रेष्ठ विद्या को माना गया है । विद्या जैसे अक्षय कोश को जितना खर्च किया जाए वह उतना ही अधिक बढ़ता है ।
विनम्रता से मनुष्य योग्यता प्राप्त करता है । अपनी योग्यता के दम पर मनुष्य धन प्राप्त करता है और धन से धार्मिक , सामाजिक और आध्यात्मिक कार्य संपन्न होते हैं । धार्मिक कार्य से असीम आनंद की प्राप्ति होती है ।
मनुष्य को सदैव अच्छे कार्य करने चाहिए । उसी से सुख की प्राप्ति होती है । विद्या का मूल उद्देश्य मनुष्य को ज्ञानवान बनाकर उसके जीवन की जटिलता को दूर करना है ।
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