Jal ka jeevan me mahatva जल का जीबन में महत्व
What is importance of water in life.
प्रत्येक प्राणी तक किसी न किसी रूप में जल पहुंचाने का प्रयोजन ईश्वर का ही है । वे बादलों के माध्यम से पृथ्वी के प्राण रक्षण के लिए जल भेजते हैं । हम सभी को उसका सदुपयोग करना है .
. हमारे सनातनी ऋषि - मुनियों के कार्य और तपस्या केवल लोककल्याण की भावना से ओतप्रोत थी । उन ऋषियों में कई तो मंत्रदृष्टा थे , जिन्होंने वेदों की ऋचाओं को समाधि में देखा और फिर उनका लेखन हुआ । उन वेद मंत्रों का उपयोग समाज कल्याण के उद्देश्य से होने लगा , क्योंकि हमारे शास्त्र कहते हैं कि यज्ञात्मक अनुष्ठान करने से वर्षा होती है , फिर वर्षा से धान्य होता है और धान्य से प्राणी का जीवन सुरक्षित होता है ।
ऋषियों में यह भेद - भावना नहीं थी कि यज्ञ हम करें और वर्षा सबके खेतों और भूमि पर क्यों हो ? यही हमारी संस्कृति और धरोहर है कि हम सबके कल्याण और सुख के लिए उस वैदिक परंपरा को लेकर चल रहे हैं । गंगा , समुद्र या ग्लेशियर भी अलग - अलग तरह से समाज का हित कर रहे हैं । वामन पुराण के अनुसार , जब भगवान ने बलि के यज्ञ की संपूर्ति और उसका कल्याण करने के लिए यज्ञशाला में अपना विराट रूप प्रकट किया तथा अपना चरण उठाया , संत मैथिलीशरण तो उनका वह पैर ( भाईजी ) ब्रह्मलोक में चला गया । ब्रह्मा जी ने भगवान के चरण को पहचान लिया । उन्होंने अपने कमंडल के जल में भगवान के चरण का प्रक्षालन किया । ब्रह्मा जी के कमंडल में पहले केवल जल था , पर भगवान के चरणों के प्रक्षालन से उसमें गंगा का प्रादुर्भाव हो गया । इस तरह पहले गंगा जी ब्रह्मा जी के कमंडल में थीं , फिर ऋषि भगीरथ की तपस्या से वे पृथ्वी पर आईं । भगवान शंकर ने गंगा को जटाओं में धारण कर पृथ्वी पर आने का मार्ग प्रशस्त किया । गंगा पृथ्वी पर आईं और भगीरथ के पुरखे तर । गये , उनकी मुक्ति हो गई ।
ऋषि भगीरथ की यह महानता गंगा को पृथ्वी पर लाने की तो है ही , उससे भी अधिक वैशिष्ट्य तब सामने आया , जब पुरखों की मुक्ति के 1. पश्चात वे गंगा जी से यह कदापि नहीं कहते कि अब मेरा उद्देश्य पूरा हो गया , आप पुनः ब्रह्मलोक में चली जाइये । नहीं ...। यदि वे ऐसा करते तो गंगा का लोकमंगल स्वरूप गौण हो जाता , जिसके कारण वे पतित पावनी कहलाई ।
यही - सनातन धर्म की उदात्त परंपरा है कि हमारे कार्य में सबके कल्याण की भावना भी निहित हो । गंगा अपनी मातृ भावना से संसार में अपने सभी बच्चों के लालन - पालन के लिए व्यग्र - सी दिखाई देती हैं । इसी कारण गंगा का महत्त्व आधिदैविक , आधिभौतिक और आध्यात्मिक विविध रूपों में हैं । समुद्र में चाहे कितना भी जल क्यों न हो , पर जल में मिठास तो बादल से बरसे हुए जल में ही होती है । बादल और जल हमें सर्वजन सुखाय और सर्वजन हिताय का मंगल सूत्र देते हैं ।
जल जितना बह रहा है ! उसका उतना उपयोग नहीं हो पा रहा है । हम धन संरक्षण , भूमि संरक्षण , अहंकार संरक्षण को अधिक महत्त्व देते हैं , पर हमें कदाचित यह स्मरण नहीं रह जाता है कि जल के अभाव में हमारा जीवन ही नहीं रहेगा तो कौन किसका संरक्षण करेगा ।
संसार का कोई धर्म ऐसा नहीं है , जो जल के प्रयोग के बिना अपना अनुष्ठान पूर्ण कर ले । प्रत्येक धर्म में या तो जल से पूजा होती है या जल की पूजा होती है या फिर हम जल से पवित्र होकर ही पूजा करने योग्य होते हैं । हम जीवन में जन्म से लेकर विलय तक जल से जुड़े हुए हैं । हमारा उद्भव भी तब होता है , जब मां के पेट में जल की एक नियमित मात्रा में गर्भ रहता है । जीवन का अंत होने पर भी जल से ही स्नान कराया जाता है ।
आज मनुष्य को लगता है कि जल की आवश्यकता केवल हमें है , उसे अन्य किसी प्राणी की परवाह नहीं । वन्य प्राणी भी तो अपने प्राणों की रक्षा के लिए जल खोजने के कारण ही हमें दिखाई देते हैं , जल तो सबका सहारा है । जहां - तहां सड़कों , गलियों में गायें पानी ढूंढ़ रही हैं । जब तक हमारे समाज के अंदर सामूहिक रूप से लोकमंगल की सनातन भावना का उदय नहीं होगा , तब तक हमारा निर्माण ही हमारे विध्वंस का कारण बनेगा । बादलों , नदियों के जल को जब तक हम व्यर्थ होने से नहीं रोकेंगे , तब तक जल संरक्षण मात्र एक वैचारिक चिंतन बनकर रह जाएगा ।
समुद्र को नदियों और बादलों के जल की कदापि आवश्यकता नहीं है , वह तो पूर्ण है , तभी तो ईश्वर हम अपूर्ण प्राणियों की आपूर्ति के लिए बादलों के माध्यम से पृथ्वी के प्राण रक्षण के लिए जल भेजता है , हमें तो मात्र उसका सदुपयोग ही करना है । जल
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